Monday, 3 October 2016

maa beta ki kahani

आँचल में दूध लिए ………
आँखों से छलकता पानी,
सोच रही “माँ” बैठ सड़क पर ,
किसे कहूँ अपनी दुखभरी कहानी ?
बीती रात को बेटे ने उसके ……..
घर से बाहर निकाला ,
कि  सह न सकेगा खर्च वो उसका,
अपनी कमाई का देके हवाला ।
न घर है अब कोई मेरा,सोच रही वो कहाँ जाऊँ ?
किसके घर जाकर अब , मैं अपना डेरा जमाऊँ ?
बचपन होता तो झूठ बोलकर,लोगों से मैं नज़र बचाऊँ ,
परन्तु इस उम्र में, सच बोलने का साहस कहाँ से लाऊँ ?
भूखे पेट वो चलती रही ……
किसी “वृधाश्रम” की तलाश में,
क्योंकि शहरों में ऐसा अक्सर होता है,
पड़ा था उसने किसी किताब में।
पहुँच कर आश्रम उसने वहाँ का द्वार जब खटखटाया,
तो हाथ में “फॉर्म” पकड़े एक कर्मचारी बाहर आया ,
बोला माताजी ये “फॉर्म” नहीं सिर्फ एक औपचारिकता है,
घर से बुजुर्गों को निकालना आम सी बन गयी, ये “हिन्दुस्तानी सभ्यता” है ।
सुनकर “माँ ” बोली उससे ,ये मेरे आँसू नहीं पानी हैं ……..
बेटा  बहुत लायक है मेरा, ये ही सच्ची कहानी है ।
उसने मुझे नहीं निकाला ,मैं खुद से चली आयी हूँ ,
अपने जीवन- काल को ,समर्पित करने यहाँ आयी हूँ ।
वो “नादान परिंदा” मेरा, उड़ना अभी न जान सका….
अपने नीड़ की टहनी को, मेरे संग न बाँध सका ।
“भरत” ने भी क्या दुःख भोग होगा ,अपने “राम” के जाने से ,
मेरा बेटा  छोड़ गया सब , मेरे यहाँ पर आने से ।
मोह नहीं उसे इस दौलत का ,मेरे लिए तड़पता है ……
मगर मेरा ह्रदय कठोर बड़ा ,जो हर पल उसे तिरस्कृत करता है ।
याद रखो मेरी अपने मन में ,ये छोटी सी एक बात ,
कि  “हिन्दुस्तानी सभ्यता ” नहीं बदली ,बस बदल गए हैं हमारी सोच के सवालात ।












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